मंगलवार, 25 दिसंबर 2012

मनुस्मृति दहन दिवस एस आर दारापुरी

मनुस्मृति दहन दिवस
एस आर दारापुरी

आज 25 दिसम्बर है। यह दलितों के लिए " मनुस्मृति दहन दिवस" के रूप में अति महतवपूर्ण दिन है। इस दिन ही सन 1927 को " महाड़ तालाब" के महा संघर्ष के अवसर पर डॉ बाबा साहेब भीम राव अम्बेडकर ने खुले तौर पर मनुस्मृति जलाई थी। यह ब्राह्मणवाद के विरुद्ध दलितों के संघर्ष की अति महतवपूर्ण घटना है। अतः इसे गर्व से याद किया जाना चाहिए।
डॉ आंबेडकर के मनुस्मृति जलाने के कार्यक्रम को विफल करने के लिए सवर्णों ने यह तै किया था कि उन्हें इस के लिए कोई भी जगाह न मिले परन्तु एक फत्ते खां नाम के मुसलमान ने इस कार्य हेतु अपनी निजी ज़मीन उपलब्ध करायी थी। उन्होंने यह भी रोक लगा दी थी कि आन्दोलनकारियों को स्थानीय स्तर पर खाने पीने तथा ज़रूरत की अन्य कोई भी चीज़ न मिल सके। अतः सभी वस्तुएं बाहर से ही लानी पड़ी थीं। आन्दोलन में भाग लेने वाले स्वयं सेवकों को इस अवसर पर पांच बातों की शपथ लेनी थी:-
1. मैं जन्म आधारित चातुर्वर्ण में विशवास नहीं रखता हूँ।
2. मैं जाति भेद में विशवास नहीं रखता हूँ।
3. मेरा विश्वास है कि जातिभेद हिन्दू धर्म पर कलंक है और मैं इसे ख़तम करने की कोशिश करूँगा।
4. यह मान कर कि कोई भी उंचा - नीचा नहीं है, मैं कम से कम हिन्दुओं में आपस में खान पान में कोई प्रतिबन्ध नहीं मानूंगा।
5. मेरा विश्वास है कि दलितों का मंदिर, तालाब और दूसरी सुविधाओं में सामान अधिकार हैं।
डॉ आंबेडकर दासगाओं बंदरगाह से पद्मावती बोट द्वारा आये थे क्योंकि उन्हें डर था कि कहीं बस वाले उन्हें ले जाने से इनकार न कर दें।
कुछ लोगों ने बाद में कहा कि डॉ आंबेडकर ने मनुस्मृति का निर्णय बिलकुल अंतिम समय में लिया क्योंकि कोर्ट के आदेश और कलेक्टर के मनाने पर महाड़ तालाब से पानी पीने का प्रोग्राम रद्द करना पड़ा था। यह बात सही नहीं है क्योंकि मीटिंग के पंडाल के सामने ही मनुस्मृति को जलाने के लिए पहले से ही वेदी बनायीं गयी थी। दो दिन से 6 आदमी इसे तैयार करने में लगे हुए थे। एक गड्डा जो 6 इंच गहरा और डेढ़ फुट वर्गाकार था खोद गया था जिस में चन्दन की लकड़ी रखी गई थी। इस के चार किनारों पर चार पोल गाड़े गए थे जिन पर तीन बैनर टाँगे गए थे जिन पर लिखा था:
1. मनुस्मृति दहन स्थल
2. छुआ -छुत का नाश हो और
3. ब्राह्मणवाद को दफ़न करो।
25 दिसम्बर, 1927 को 9 बजे इस पर मनुस्मृति को एक एक पन्ना फाड़ कर डॉ आंबेडकर, सहस्त्रबुद्धे और अन्य 6 दलित साधुओं द्वारा जलाया गया।
पंडाल में केवल गाँधी जी की ही एकल फोटो थी। इस से ऐसा प्रतीत होता कि डॉ आंबेडकर और दलित लीडरोँ का तब तक गाँधी जी से मोहभंग नहीं हुआ था।
मीटिंग में बाबा साहेब का ऐतहासिक भाषण हुआ था। उस भाषण के मुख्य बिंदु निम्नलिखित लिखित थे:-
हमें यह समझाना चाहिए कि हमें इस तालाब से पानी पीने से क्यों रोक गया है। उन्होंने चतुर्वर्ण की व्याख्या की और घोषणा की कि हमारा संघर्ष चातुर्वर्ण को नष्ट करने का है और यही हमारा समानता के लिए संघर्ष का पहला कदम है। उन्होंने इस मीटिंग की तुलना 24 जनवरी, 1789 से की जब लुइस 16वें ने फ्रांस के जन प्रतिनिधियों की मीटिंग बुलाई थी। इस मीटिंग में राजा और रानी मारे गए थे, उच्च वर्ग के लोगों को परेशान किया गया था और कुछ मारे भी गए थे। बाकी भाग गए और अमिर लोगों की सम्पति ज़ब्त कर ली गयी थी तथा इस से 15 वर्ष का लम्बा गृह युद्ध शुरू हो गया था। लोगों ने इस क्रांति के महत्त्व को नहीं समझा है। उन्होंने फ्रांस की क्रांति के बारे में विस्तार से बताया। यह क्रांति केवल फ्रांस के लोगों की खुशहाली का प्रारंभ ही नहीं था, इस से पूरे यूरोप और विशव में क्रांति आ गयी थी।
तत्पश्चात उन्होंने कहा कि हमारा उद्देश्य न केवल छुआ -छुत को समाप्त करना है बल्कि इस की जड़ में चातुर्वर्ण को भी समाप्त करना है। उन्होंने आगे कहा कि किस तरह पैट्रीशियनज़ ने धर्म के नाम पार प्लेबिअन्स को बेवकूफ बनाया था। उन्होंने ललकार कर कहा था कि छुअछुत का मुख्य कारण अंतरजातीय विवाहों पर प्रतिबन्ध है जिसे हमें तोडना है। उन्होंने उच्च वर्णों से इस "सामाजिक क्रांति" को शांतिपूर्ण ढंग से होने देने, शास्त्रों को नकारने और न्याय के सिद्धांत को स्वीकार करने की अपील की। उन्होंने उन्हें अपनी तरफ से पूरी तरह से शांत रहने का आश्वासन दिया। सभा में चार प्रस्ताव पारित किये गए और समानता की घोषणा की गयी। इस के बाद मनुस्मृति जलाई गयी जैसा कि ऊपर अंकित किया गया है।
ब्राह्मणवादी मीडिया में इस पर बहुत तगड़ी प्रतिक्रिया हुयी। एक अखबार ने उन्हें "भीम असुर" कहा। डॉ आंबेडकर ने कई लेखों में मनुस्मृति के जलाने को जायज़ ठहराया। उन्होंने उन लोगों का उपहास किया और कहा कि उन्होंने मनुस्मृति को पढ़ा नहीं है और कहा कि हम इसे कभी भी स्वीकार नहीं करेंगे। उन्होंने उन लोगों का ध्यान दलितों पर होने वाले अत्याचार की ओर खींचते हुए कहा कि वे लोग मनुस्मृति पर चल रहे हैं जो यह कहते हैं कि यह तो चलन में नहीं है, इसे क्यों महत्व देते हो। उन्होंने आगे पूछा कि अगर यह पुराणी हो गयी है तो फिर आप को किसी द्वारा इसे जलाने पर आपात्ति क्यों होती है? जो लोग यह कह रहे थे कि मनुस्मृति जलाने से दलितों को क्या मिलेगा इस पर उन्होंने उल्टा पूछा कि गान्धी जी को विदेशी वस्त्र जलाने से क्या मिला? "ज्ञान प्रकाश" जिसने खान और मालिनी के विवाह के बारे में छापा था को जला कर क्या मिला? न्युयार्क में मिस मेयो की " मदर इंडिया " पुस्तक जला कर क्या मिला? राजनैतिक सुधारों को लागू करने के बनाये गए "साइमन कमीशन" का बाईकाट करने से क्या मिला? यह सब विरोध दर्ज कराने के तरीके थे ऐसा ही हमारा भी मनुस्मृति के विरुद्ध था।
उन्होंने आगे घोषणा की अगर दुरभाग्य से मनुस्मृति जलाने से ब्राह्मणवाद ख़त्म नहीं होता तो हमें या तो ब्राह्मणवाद से ग्रस्त लोगों को जलाना पड़ेगा या फिर हिन्दू धर्म छोड़ना पड़ेगा। आखिरकार बाबा साहेब को हिन्दू को त्याग कर बौद्ध धम्म वाला रास्ता अपनाना पड़ा। मनुस्मृति का चलन आज भी उसी तरह से है। अतः दलितों को मनुस्मृति दहन दिवस मना कर इसे तब तक जलाना पड़ेगा जब तक चातुर्वर्ण ख़तम नहीं हो जाता।

शनिवार, 1 दिसंबर 2012

उत्तर प्रदेश में अति पिछड़ी जातियों को अनुसूचित जातियों की सूची में शामिल करने की राजनीती एस आर दारापुरी

उत्तर प्रदेश में अति पिछड़ी जातियों को अनुसूचित जातियों की सूची में शामिल करने की राजनीती
एस आर दारापुरी
हाल में उत्तर प्रदेश में  16 नवम्बर को समाजवादी पार्टी के  मुख्य मंत्री अखिलेश यादव ने 17 अति पिछड़ी जातियों को अनुसूचित जातियों की सूची में शामिल करने के लिए कैबिनेट की एक उप समिति बनायीं है जो दो माह में राज्य सरकार को अपनी रिपोर्ट देगी। रिपोर्ट के आधार पर राज्य सरकार सम्बंधित पिछड़ी जातियों को अनुचित जातियों की  सूचि मे शामिल करने के लिए केंद्र सरकार से सिफारिश करेगी । इस पर  बसपा और भाजपा ने  प्रकरण में सरकार की नियत पर सवाल उठाते हुए उप समिति बनाये जाने का विरोध  करते हुए गुरुवार को विधान सभा से बहिर्गमन कर दिया। दोनों पार्टियों का कहना था कि मामले को लटकाने के लिए उपसमिति बनाये जाने की बजाए सरकार सम्बंधित प्रस्ताव को सदन के माध्यम से केंद्र सरकार को क्यों नहीं भेजती?
सरकार ने विधान सभा में एक प्रशन के उत्तर में यह बताया  था कि निषाद, बिन्द, मल्लाह,केवट, कश्यप, भर, धीवर, बाथम, मछुआरा,
प्रजापति,राजभर,कहार, कुम्हार, धीमर, मांझी, तुरहा तथा गौड़ आदि जातियों को अनुसूचित जातियों की सूचि में शामिल करने के लिए उपसमिति बनायीं गयी है जो दो माह में अपनी रिपोर्ट सरकार को देगी। रिपोर्ट के आधार पर सरकार केद्र सरकार को उक्त जातियों को एससी की सूचि में शामिल करने की सिफरिश  की जाएगी। इस पर बसपा और भाजपा के प्रतिनिधियों ने यह कहते हुए सदन से बहिर्गमन  किया कि  सरकार प्रकरण को केवल लटकाना चाहती है।
इस सम्बन्ध में यह उल्लेखनीय है कि इस से पहले भी वर्ष 2006 में मुलायम सिंह की सरकार ने 16 अति पिछड़ी जातियों को अनुसूचित जातियों की सूची तथा 3 अनुसूचित जातियों को अनुसूचित जनजाति की सूची में शामिल करने के लिए शासनादेश जारी  किया था जिसे आंबेडकर महासभा तथा अन्य  दलित संघठनों   द्वारा न्यायालय में चुनौती देकर रद्द करवा दिया गया था।   
वर्ष 2007 में सत्ता में आने पर मायावाती, जो कि अपने  आप को दलितों का मसीहा घोषित करती है, ने भी इसी प्रकार से 16 अति पिछड़ी जातियों को अनुसूचित जातियों की सूचि में शामिल करने की संस्तुति केन्द्रीय सरकार को भेजी  थी। इस पर केन्द्रीय सरकार ने इस के औचित्य के बारे में उस से सूचनाएं मांगी तो वह इस का कोई संतोषजनक उत्तर नहीं दे सकी।और  केन्द्रीय सरकार ने उस प्रस्ताव को वापस भेज दिया।
इस विवरण से स्पष्ट है कि  समाजवादी पार्टी  और बसपा   इन पिछड़ी जातियों को अनुसूचित जातियों में शामिल कराकर उन्हें  अधिक आरक्षण दिलवाने का लालच देकर  केवल उनका वोट प्राप्त करने की राजनीति कर रही हैं क्योंकि वे अच्छी  तरह जानती हैं कि न तो उन्हें स्वयम इन जातियों को अनुसूचित जातियों की सूचि में डालने का अधिकार है और न ही यह जातियां अनुसूचित जातियों के माप दंड पर पूरा ही  उतरती हैं। वर्तमान संवैधानिक व्यवस्था के अनुसार किसी भी जाति को अनुसूचित जातियो की सूचि में शामिल करने अथवा उसे इस से निकालने  का अधिकार केवल पार्लियामेंट को ही है। राज्य सरकार  औचित्य सहित केवल अपनी संस्तुति  केन्द्रीय सरकार को भेज सकती है जो इस सम्बन्ध में केन्द्रीय सरकार ही  रजिस्ट्रार जनरल  आफ इंडिया तथा रष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग से परामर्श के बाद  पार्लियामेंट के माध्यम से ही  किसी जाति को सूचि में शामिल अथवा निकाल सकती है। संविधान की धारा 341 में राष्ट्रपति  ही राज्यपाल से परामर्श करके संसद द्वारा कानून पास करवा कर इस सूचि में किसी जाति का प्रवेश  अथवा निष्कासन कर सकता है। इस में राज्य सरकार को कोई भी शक्ति प्राप्त नहीं है। वास्तव में यह पार्टियाँ अपनी संस्तुति केन्द्रीय सरकार को  भेज कर  सारा मामला कांग्रेस  की  झोली में  डालकर यह प्रचार करती हैं कि हम तो आप को अनुसूचित जातियों की सूचि में डलवाना चाहते हैं परन्तु केंद्र सरकार उसे नहीं कर रही है। यह केवल अति पिछड़ी जातियों को गुमराह करके वोट बटोरने की राजनीति  है जिसे अब शायद ये जातियां भी बहुत अच्छी  तरह से जान गयी हैं।
इस सम्बन्ध में यह भी उल्लेखनीय है कि अखलेश यादव की सपा सरकार अथवा मायावती की बसपा सरकार द्वारा जिन अति पिछड़ी जातियों को अनुसूचित जातियों की सूचि में डालने की जो संस्तुति पहले की गयी थी अथवा आगे की जाएगी वह मान्य  नहीं होगी क्योंकि यह जातियां अनुसूचित जातियों की   अस्पृश्यता की आवश्यक शर्त को पूरा नहीं करतीं। यह सर्व विदित  है कि अनुसूचित जातियां सवर्ण हिन्दुओं के लिए अछूत हैं जबकि सम्बंधित पिछड़ी जातियां उन के लिए सछूत  हैं। इस प्रकार उनका किसी भी हालत में अनुसूचित जातियों की सूचि में शामिल किया जाना संभव नहीं है।
 यदि सपा सरकार  इन पिछड़ी जातियों को आरक्षण का  वांछित लाभ वास्तव में देना चाहती हैं जोकि वार्तमान में उन्हें पिछड़ों में समृद्ध जातियों (यादव, कुर्मी तथा जाट आदि ) के  शामिल रहने से नहीं मिल पा रहा है तो  उसे इन जातियों की सूचि को दो या तीन हिस्सों में बाँट कर उनके लिए 27% के आरक्षण को उनकी आबादी के अनुपात में बाँट देना चाहिए। देश के अन्य कई राज्य बिहार, तमिलनाडु, कर्णाटक अदि में यह व्यवस्था पहले से ही लागू  है। मंडल योग में भी इस प्रकार की संस्तुति की गयी थी।
  उत्तर प्रदेश में इस सम्बन्ध में 1975 में डॉ छेदी लाल साथी की अध्यक्षता में सर्वाधिक पिछड़ा आयोग गठित किया गया था जिस ने अपनी रिपोर्ट 1977 में उत्तर प्रदेश सरकार को सौंप दी थी परन्तु उस पर आज तक कोई भी कार्रवाही नही की गयी। साथी आयोग ने पिछड़े वर्ग की जातियों को तीन श्रेणियों में निम्न प्रकार  बाँटने  तथा उन्हें 29.5 % आरक्षण देने की संस्तुति की थी:
"अ" श्रेणी में उन जातियों को रखा गया था जो पूर्ण रूपेण भूमिहीन, गैर-दस्तकार, अकुशल श्रमिक, घरेलू सेवक हैं और हर प्रकार से ऊँची जातियों पर निर्भर हैं। इनको 17% आरक्षण देने की संस्तुति की गयी थी।
"ब" श्रेणी में पिछड़े वर्ग की वह जातियां, जो कृषक या दस्तकार हैं। इनको 10% आरक्षण देने की संस्तुति की गयी थी। .
"स" श्रेणी में मुस्लिम पिछड़े वर्ग की जातियां हैं जिनको 2.5 % आरक्षण देने की संस्तुति की गयी थी।
वर्तमान में उत्तर प्रदेश में पिछड़ी जातियों के लिए 27% आरक्षण उपलब्ध है। अतः इसे डॉ छेदी लाल साथी आयोग की संस्तुतियों के अनुरूप पिछड़ी  जातियों को तीन हिस्सों में बाँट कर उपलब्ध आरक्षण को उनकी आबादी के अनुपात में बाँटना अधिक न्यायोचित होगा। इस से अति पिछड़ी जातियों को अपने हिस्से के अंतर्गत आरक्षण मिलना संभव हो सकेगा।
 इन अति पिछड़ी जातियों को यह भी समझाना होगा कि सपा सरकार इन अति पिछड़ी जातियों को इस सूचि से हटा कर अपनी समृद्ध जातियों यादव, कुर्मी और जाट के लिए आरक्षण बढ़ाना चाहती है और उन्हें अनुसूचित जातियों से लडाना चाहती है। अतः उन्हें सपा और बसपा  की इस चाल को समझाना चाहिए और उन के इस झांसे में न आ कर डॉ छेदी लाल साथी आयोग की संस्तुतियों के अनुसार अपना आरक्षण अलग कराने  की मांग उठानी चाहिए। इसी प्रकार कुछ  जातियां जो वर्तमान में अनुसूचित जातियों की सूचि में हैं परन्तु उन्हें अनुसूचित जनजातियों  की सूचि में होना चाहिए उन्हें सपा सरकार से एक आयोग बना कर उनकी स्थिति का आंकलन करवा भारत  सरकार  को संस्तुति करने की मांग  उठानी चाहिए तभी इन जातियों को भी उचित न्याय मिल सकेगा वरना वे इन पार्टियों द्वारा झूठे आश्वासन दे कर इसी तरह ठगे जाते रहेंगे। 

उत्तर प्रदेश में दलित-आदिवासी और भूमि का प्रश्न

  उत्तर प्रदेश में दलित - आदिवासी और भूमि का प्रश्न -     एस आर दारापुरी, राष्ट्रीय प्रवक्ता, आल इंडिया पीपुल्स फ्रन्ट 2011 की जनगणना ...